Sunday 14 January 2018

अहं की खिचड़ी

दिल के कड़ुवेपन को चलो सभी भूला लें
गुड़ की चाशनी में द्वेष तार तार कर डालें

मकर संक्रांति में उत्तरायण से रवि
ले कर आता नई उष्मा नई तीव्रता
जीवन पथ हो जाता आलोकित
भर देता वो तन मन में नव स्फूर्ति  ..
घुल मिल जाते सभी एक दूजे में

आज अपनी अहं की खिचड़ी ही बना ले
दिल के कडुवेपन को चलो सभी भूला लें

बरसों से सोये हैं मेरे भी अरमान
खुले आसमां में विचरण को तृषित 
उर आजादी का जश्न मनाने को
बनकर पतंग उड़े बादलों के पार
चिड़ियों के संग जी भरकर खेले ..
पवन  संग लहरा के चुमें चाँद को

बरसों की जमी कोफ्त तिल तिल कर डालें
दिल के कड़ुवेपन को चलो सभी भूला लें

रोज रोज के जद्दोजहद से निकल लूँ
खुद की हस्ती को ही भूल जाऊँ
नीले आसमां में स्वच्छंद घुम लूँ
गर भटकने लगूँ अपनी मंजिलें
तू मांजा बन खींच लेना पहलूँ में
ख्वाहिशों की झोली मेरी भरना
करना निहाल रख अपने पनाह में

हम सब नेह के बीज दिलों में ही जमा लें
दिल के कड़ुवेपन को चलो सभी भूला लें

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