विधा-गीत
बेडियाँ तोड़ ली नारी ने,घर के चौखट से निकल रही।
नया ज़माना देखो आया, आदत अपनी वो बदल रही ।
आंगन में खिल गई कली जब,उर मुस्काया मातु पिता का छुई मुई सी मासूम नन्हीं, मैया लगाती नजर टीका ।।
देखो शौक लाडली के अब,,खेलती है जूड़ो करांटे ।
पढ़ने में होशियार इतनी ,बेटों के बिटिया कान काटे ।।
भविष्य के फैसले खुद करती,नये युग संग परी चल रही ।
नया ज़माना देखो आया ...
खोल रही अपनी हथकड़ियाँ,,नवल पंख लग गए परों में ।
अब जुल्मों सितम नहीं सहेगी,क्यों अबला बन रहे घरों में।
आज घर आफिस सँभाल रही,,निभाती सभी जिम्मेदारी।
करना अपमान न नर इनका,,सृष्टि की अनोखी भेंट नारी।
नर को टक्कर देने, खुद ही,,अब वो मैदान में उतर रही।
नया ज़माना देखो आया ...।
मर्यादा सीमा को भूली ,,करती अनदेखी सुनीति की ।
आजादी का जश्न मनाती ,,जान बूझ के रास्ता भटकी।।
बदल रही रंग ढंग नारी ,,,चढ़ा नशा नये बदलाव का ।
धुम्रपान मद्यपान भाता, लानत है ऐसी आदत का।
क्या संदेश पूत को देगी, आधुनिकता में तुम ढल रही
नया ज़माना देखो आया, आदत अपनी सब बदल रही
*प्रो उषा झा रेणु*
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