विधा- गीत
युगों युगों से संग संग ही चलते
मिलते नहीं नदियों के किनारे
पथ हो चाहे कितने ही दुर्गम
दरिया बना ही लेती है सुगम ।
युग युग से बह रही वो निरंतर
प्यास बुझाये अविरल धारा... ।
है अतृप्त मन ,दूर प्रीतम प्यारे,
दो पल ही सही,बैरी संग बितारे ।
युगों युगों से संग संग ही चलते
मिलते नहीं नदियों के किनारे ।।
रूकना न पथ में कभी थक कर
कह रही ओ पथिक बढ़ता चल ।
राह के शूलों से बुज दिल घबराते ।
बीहड़ वन सुनसान डगर पुकारे ,
नाप रही बावरी नैन स्वप्न सजाये
सागर मिलन मन में अभिलाषाये ।
दुर्गम राहें रौशन करे चाँद सितारे ।।
युगों युगों से संग संग ही चलते ।
मिलते नहीं नदियों के किनारे...।।
जब जीवन में हो दुख घनेरी
हृदय में हो कितनी व्यथा भरी,
दुख दर्द में न तुम करो प्रलाप
नेह दीप आंधी में भी जला लो
मिटा लो तुम अपना सब संताप ।
अरमां दिलों के रव ही पूरे करते
भर उर मे हर्ष का उजास बावरे ।
युगों युगों से संग संग ही चलते
मिलते नहीं नदियों के किनारे ।।
निर्झर जीवन में धर लो जरा धीर
विलग प्रिये हो तो बहाओ न नीर ।
पंछी बन एक दिन उड़ जाना है,
ये जीवन तो है दो दिन का ड़ेरा ।
मनुज मिटा ले तम अपने हृदय के ।
मिट जाते हम, नेकी कभी न मरते
प्रेम पुष्प वसुधा पर सब खिला रे
युगों युगों से संग संग ही चलते
मिलते नहीं नदियों के किनारे..
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