Wednesday 28 February 2018

पहली होली

बचपन से होली का त्योहार मन को बहुत भाता था ।सभी सखियों के साथ  रंग खेलना एक दूजे के घर सुंदर पकवान चखना, छूप छूप के आते जाते लोगों के उपर पिचकारी से रंग डालने में कितना आनंद आता था ।
बचपन की होली भूलाये न भूलता मन ।पर उदन्डता देख यौवन में डरने लगी
होली से। जीजा साली को बदतमीजी से रंग लगाते देख ,मन ही मन होली किसी से न खेलने का फैसला कर लिया ।शादी के बाद ससुराल में पहली होली आई तो मैं सुबह से ही अपने कमरे के दरवाजे बंद कर  बैठ गई।मेरे पति महोदय ने बहुत समझाया.. बोले कोई नहीं रंग लगाएँगे तुम्हें, लोग क्या कहेंगे नई बहू त्योहार के दिन काम में हाथ बँटाने के बजाय घर में घुसी बैठी है..बात समझ में आ गई ,मैं कमरे से निकल कर पकवान बनाने में मदद करने लगी ।मैं बेखबर हो कर मगन मन से गुलाल सजा रही थी प्लेटों में
इतने में न जाने कहाँ से आ टपके पति  देव फिर हँसके गुलाल चेहरे पे लगाने लगे..और हँसते हुए कहने लगे कि रंगों के त्योहार बिना रंग के फीके फीके लगते..जीवन के हर पल इसी रंगों से रंगीन हो जाते हैं ।यही मधुर पल हम सब के जीवन में टाॅनिक है स्वस्थ और खुश रहने के लिए ..
इस खूबसूरत होली को गर विकृत न करे कोई इतना ही है सब से विनती ..
 ⚘⚘⚘ उषा झा ⚘⚘⚘
स्वरचित (देहरादून)

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