जीवन की शुरुआत
नया दौर लेके आया
मैं अकेली ही रह गई
कटेंगे कैसे दिन रात
रहुँगी कैसे बिन संतान
मैं हूँ अब लक्षयबिहिन
बच्चों के पीछे अपना
सारा अस्तित्व मिटाया
उसी को बंधु, सखा
और मित्र बनाया ..
जीवन में आए चाहे
कितने ही झंझावात
पर सारी खुशियाँ
उसी में पाया ..
कितने ही रहें व्यथित
संतान के सपने
उसके अरमान
नभ में भरने को उड़ान
परवाज बनना पड़ता ..
कोने कोने से दिल के
दुवाएँ है निकलती
पाए वो उँचे मकाम
करे मम्मी पापा का
जग में नाम वो रौशन ..
मन को बहुत समझाती
पर दखके सुने घर आंगन
नयनों से बह रही अश्रुपात ...
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