पार्वती विवाह
विधा- गीतिका छंद
2122 2122 2122 212
मात मैना रो रही बेटी चुनी जोगी पिया ।
हार दी क्यों पार्वती इस शिव भिखारी ही जिया।।
माँ कुँआरी मैं रहूँ शिव पति नहीं पाँऊ अगर ।
साथ मेरा सात जन्मों का वही मेरे प्राण उर ।
नाथ शंकर हैं जगत के भूल को करते क्षमा ।
भू गरल पीकर सदाशिव भष्म में रहते रमा ।
राजकन्या को पिया जोगी मिला है देखकर।
मात मैना का कलेजा भी हिला है देखकर ।।
फिर रही मैया बिलखती बाप का दिल रो रहा
इक भँगेड़ी संग में बेटी का परिणय हो रहा
देव भी समझा रहे माँ ब्याह को राजी नहीं
घूमते वन-वन भिखारी को सुता देनी नहीं
साँप बिच्छू, सोहें तन पर भूत साथी क्या बचा
मस्त गाँजे में है दूल्हा हे विधाता क्या रचा।
भार बेटी है नहीं ये शब्द माँ ने जब कहा ।
प्राण में शिव ही बसे हैं ये रमा ने तब कहा।।
माँ कुँआरी ही रहूँगी या वरूँ शिवनाथ को।।
मम ह्रदय में वो बसे हैं नित झुकाती माथ को ।।
मान माँ पितु फिर गये बारात सज-धज कर चढ़ी।
देवता सँग सँग चलें ये क्या सुहानी है घड़ी।।
है अलौकिक दृश्य नंदी पर जो दूल्हा मस्त है।
चाँद तारे नाचते हर देवता भी व्यस्त है ।।
उषा झा (स्वरचित )
देहरादून (उत्तराखंड
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