विधा- शृंगार छंद
धरा ने कर ली है श्रृंगार ।
बसंत पुलकित खड़े हैं द्वार।।
रागिनी उरजित उर आगार ।
प्रीत मुखरित लगता संसार ।।
हृदय में अजब हुआ एहसास
सजन से मिलने की है प्यास।
पावनी बरसे मृदुल फुहार ।
हिया के बजते हैं हर तार ।।
प्रेम आसक्ति भरे मधुमास।
जगत रति मदन के हुए दास ।
खिले हैं शुचित हृदय में फूल ।
तभी मन भूल गए हैं शूल ।।
नैन के कलशी छलके आज।
दबे हैं उर में कितने राज ।।
बताना तुमको कितनी बात।
सपन सजना हो मदीर रात।।
मिलन मधुरिम की निशि दिन आस ।
अमा देती बस उर संत्रास ।।
तृषित मन चाहे प्रियतम दर्श ।
अधर कर सुधा स्नेहील स्पर्श।।
उषा झा देहरादून
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