विधा- दिक्पाल छंद
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राहें तरंगिणी पथरीली सदा मिली है ।
शुचि शृंग से सुधा सी धारा लिए चली है। ।
हिम चीर कर चली थी,पथ में नदी अकेली ।
राहें कठिन बहुत अब, है संग बिन सहेली ।।
थी हिम गिरी सुता का , मैदान अब बसेरा ।
अल्हड़ मना उछलती,हर साँझ से सवेरा ।।
मुड़ कर न देखती है , अपनी मगन भली है ।
शुचि शृंग से सुधा सी धारा लिए चली है।
जब सोम रस पिलाती , सबको बहुत लुभाती।
कल कल सदा सुनाती,मुक्ता नदी लुटाती ।।
निश्छल हृदय भरा है ,प्रीतम बहुत सताता ।
अंजान गाँव बहती,बाबुल नहीं बुलाता ।।
पागल पवन मिले जो पिघली नहीं ढली है ।
शुचि शृंग से सुधा सी धारा लिए चली है ।।
अरमान पी मिलन का चलती रही निरंतर ।
क्षत शैलजा शिला दे शुचि साथ भी अनंतर ।।
तजती पयस्वनी सुख, पी शूल ही चुभाया ।
पीड़ा घनी हिया में , दो नैन ने बहाया ।।
बस घात से सदा ही स्रोतस्विणी घुली है ।
शुचि शृंग से सुधा सी धारा लिए चली है ।।
निश्चित डगर इरादा है अब अटल हमारा ।
जब साथ हो पिया का जीवन सफल हमारा ।।
दिल में बसी रहूँ मैं चाहत यही हिया में ।
संगम करूँ उन्हीं से सपना वही जिया में।।
शैवालिनी कुँआरी आशा अभी पली है ।
शुचि शृंग से सुधा सी धारा लिए चली है ।
राहें तरंगिणी पथरीली सदा मिली है ।।
प्रो उषा झा रेणु
देहरादून
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