Monday 11 April 2022

लौट नहीं पाता वक्त


मेरी शिक्षा -दीक्षा की शुरुआत और अंत दरभंगा में हुई ( के .जी .से लेकर पोस्ट ग्रेजुएट तक) बीच के दो वर्ष सिर्फ बी ए
आनर्स पूर्णियाँ से हुई ।बारहवीं की परीक्षा के बाद पापा ने घर के पास ट्रान्सफर करवा लिया था । उन्हीं दिनों मेरी शादी भी हो गई थी। 
अक्सर बचपन की सहेली याद आती रहती थी ।सोचती पंख लगाकर उड़ जाऊ सखियों के पास । खासकर परवीन की याद अक्सर आती थी ।हम दोनों साथ-साथ काॅलेज जाया करते थे। ।पढाई से लेकर गासिप तक हम  चटखारे लेकर किया करते थे ।कभी क्लास टीचर की तो कभी सीनियर्स की प्रेमकहानी या फैशन पर हम कटाक्ष  करते थे ।
हमदोंनों के घर भी आस-पास थे तो छुट्टियों में चले जाते  एक दूसरे के घर।जाति- धर्म से उठकर हमारी दोस्ती थी ।मैं ब्राह्मण और वो मुस्लिम पर इससे हमारी मित्रता में कभी कोई फर्क नहीं पड़ा ।
अक्सर हम दोनों एक दूसरे के घर पर ब्रेकफास्ट भी कर लिया करती थीं ।मैं तो परवीन के घर का बना अचार तो खाती ही थी ।उन्हीं दिनों मेरी दादी हमारे पास रहने आई ।दादी  परवीन की जात पूछने लगी पर मैं टाल गई ।वो पुराने विचारों की थी इसलिए माँ ने बताने से मना कर दिया था । एक दिन दादी मेरे पीछे ही पड़ गई ।मैंने कहा,
 "वो राजपूत है ।"
उसके बाद दादी जात-पाँत भूल गई और अक्सर परवीन को पास बिठाती और खूब प्यार करती थी।मुझे बात- बात पर कहती तुम्हारी सहेली कितनी प्यारी और निश्छल मन की है ।भगवान ने इसे फुरसत से बनाया है ।मैं जोर जोर से हँसने लगी हँसते हँसते बोली," दादी प्यारी है तभी तो हमारी दोस्ती है ।आप ही तो जात- पाँत का भेदभाव रखती हो।पता है दादी , परवीन  मुस्लिम जाति की है ।" 
यह सुनकर दादी मुझको हल्के से चपत लगाई और हँसते हुए बोली, "झूठी ...! अगले क्षण बोली कोई बात नहीं जात - पाँत ओछे विचार हैं ।हम सब भगवान की संतान हैं ।तुमने मेरी आँखें खोल दी ।"
   दो साल बीत गये मैनें अच्छे अंकों से बी ए आनर्स कम्पलीट कर लिया। फस्टक्लास तो आया ही यूनिवर्सिटी में भी अच्छी पोज़ीशन रही इसलिए पोस्ट ग्रेजुएट में मिथिला यूनिवर्सिटी में दाखिला मिल गया ।
और इस तरह उसी शहर में मुझे जाने का सुअवसर पुनः प्राप्त हुआ ।इस बार मैं  अपने पति के साथ दरभंगा मेडिकल काॅलेज के पी जी हाॅस्टल में रहती थी ।मेरे पति की हाऊससर्जन की ट्रेनिंग जो चल रही थी ।
मैं काॅलेज से देर शाम तक आती । पति की कभी दोपहर  , कभी रात , कभी चौबीस घंटों की इमर्जेन्सी ड्यूटी रहती थी। सन्डे भी हम साथ साथ कम ही गुजार पाते थे।ऐसे में सखियों से मिलने को मन करता था।पढाई और अन्य व्यस्तता के कारण मन मसोसकर रह जाती थी।खैर एक सन्डे  पति की गैर हाजिरी से तल्ख होकर  चल पड़ी एकाएक परवीन के घर ।राजपूत काॅलोनी और मौलागंज की  सड़कें जहाँ मिलती थी उस मोड़ पर रिक्शे में ठगी सी बैठी रही।काॅलोनी का नक्शा ही बदल चुका था । उन दिनों मोबाईल भी नहीं हुआ करता था ।क्या पता परवीन मिले न मिले ? उसकी शादी हुई होगी, जाने कहाँ होगी ?मन में उठते अनेक सवालों को दरकिनार करते हुए पूछते - पूछते  घर तक चली ही गई ।सोचा आण्टी से ही परवीन के बारे में पूछकर लौट जाऊँगी। और इतने में घंटी की आवाज सुनकर बाऊन्ड्री के दरवाजे खुले । दरबान से मैंने कहा , "आण्टी को  जाकर बोलो उषा झा आई है , जिसके साथ परवीन काॅलेज जाती थी ।"
कुछ ही पल में आण्टी हँसते हुए आई और बोली; "आओ- आओ उषा किस्मत अच्छी है तुमलोगों की, दोनों सखियों की मुलाकात हो जाएगी।पिछले ही हफ्ते वो दुबई  से आई है।"
 फिर मुझे परवीन के कमरे में वो ले गई ।वो चकित सी मुझे देखती रही बोली , "कैसे याद आ गई इतने सालों बाद ? कैसे आई यहाँ तक जबकि अभी तो काफी कुछ बदल गया है ।"
वो बेड पर लेट रखी थी डाक्टर ने बेड- रेस्ट लिखा था ।वो कन्सीव नहीं कर पा रही थी ।गर्भ दो तीन महीने बाद 
खुद ही अबार्शन हो जाता था ।बातों के क्रम में उसने बताया । खैर शालीनता से हम गले मिले ख़ातिर दारी भी दमदार हुई ।फिर भी मेरे मन में कहीं कोई कसक सी थी ,बचपन की चंचल अल्हड़  ,बात- बात पर जोर से ठहाके लगाने वाली वो परवीन शालीनता और गंभीरता की आड़ में छुप गई थी ।गहन विचारों में खोयी वो परवीन मेरी सहेली तो निश्चित ही नहीं थी ।मन किया बीते वर्षों के एक एक पल का हिसाब किताब ले लूँ ,परन्तु ऐसा करने से दिमाग ने मना कर दिया ।हमेशा दिल से नहीं दिमाग से काम लेना चाहिए ।वक्त के साथ सब कुछ बदल जाता है जो पल छूट जाते हैं वो ढूँढने पर भी नहीं मिलते हैं।यह सोच मैं वापस पी .जी .हाॅस्टल आ गई, दरवाजे पर मेरे पति हैरत और तल्ख निग़ाहों से मुझे घूर रहे थे क्योंकि उनसे बता भी नहीं पाई और एकाएक चल पड़ी थी परवीन से मिलने .....!!

प्रो उषा झा रेणु 
स्वरचित देहरादून

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