Friday 14 June 2019

जीने की कला बबूल में

विधा-  विधाता छंद
16/14

हर परिस्थिति में अनुकूल ,,रहो बबूल ये सिखाते
पूछ रूप की दो दिन का,,गुण उत्तम हमें बताते

काँटे चुभो दे जब दामन ,,दर्द फुर्र से उड़ जाते
देते हैं दंश जो अपने,,मुश्किल से ही सह पाते
जब हो कलेजे टुकड़े ,मनु देखो वृक्ष बबूल को
छाया नेह की लुटाये , मरू में बबूल पथिक को
कंटकों के बीच रहते,,,हर वक्त वो मुस्कुराते
हर परिस्थिति....

लोग कहे बबूल के वृक्ष,, तो भूत प्रेत ही रहते
वृक्ष देव स्वरूप कुछ कहे, विष्णु जी निवास करते
खुद में मस्त बिन परवाह,, रेगिस्तान में झूमता
सावन में अनुरंजित हृद, पीत पुष्प फल से लदता
फूल छाल फल डाल सभी,,औषधिय में काम आते
पूछ रूप की दो .....

सुख -दुख आँख मिचौली है,हार न मान विसंगति से
रेत कंकड़ में बिन नीर,, भी जी ले बबूल जैसे
दुष्ट घाव दे हिय को,,,,शूल बन रक्षा कर अपना
मिले क्रोध पर हमें विजय ,, सार तत्व मन में रखना
सूनसान में शान्त खड़ा,जीवन की कला सिखाते
हर परिस्थिति...

मतलब से लोग रखें हैं,, अब केवल रिश्ते सबसे
उपहास उड़ाते जो भी,, स्वार्थ में आगे सबसे
बबूल बोने वाले का ,, जो लोग खिल्ली उड़ाते
आखों की पट्टी खुलती,औषधिय का खान पाते
अंग अंग दे सबको वो,,,परमार्थ में मिट जाते

हर परिस्थिति में अनुकूल,रहो ये बबूल सिखाते
पूछ रूप की दो दिन का,, गुण उत्तम हमें बताते

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