विधा--गीत
रेत जिन्दगी भी फिसल गई
नदियाँ के तीर मैं तन्हा रह गई
पत्थरों व लहरों के द्वन्द में
बनता गया मेरा अस्तित्व
बरसों सागर के थेपेड़ो में
तलाश रही अपने मनमीत
पाँव तले सब क्यों गए रौंद
दर्द मेरी रूह को तड़पा गई
तृष्कृत होके भी अचल रह गई
नदियाँ के तीर मैं तन्हा रह गई ....
बेजान समझ लोग अक्सर
मुट्ठी में कैद करना चाहे मुझे
पर फिसल जाती बिखर कर
आस दिलाते, छू लेते स्नेह से
कोई लिख लेते नाम मुझ पर
तृषित नयन मेरे मुग्ध हो गए
चीर मिलन पर अधूरी रह गई
नदियाँ के तीर मैं तन्हा रह गई ....
ख्वाहिशों के मेरे भी लगते पर
प्रीत का चोखा रंग चढ़े मरु में
सोने सा मैं जाऊँ निखर निखर
अरूणिमा उषा की मन चुरा गई
मलय मदहोश कर उड़ा ले गए
क्षण में पर बिखर कर रह गई
रेत सी जिन्दगी भी फिसल गई..
कुन्दन बनूँ कर्म की भट्ठी तपकर
बना दूँ घर ईंट गारे संग मिलकर
चाँद सितारे से जगमग करे छौना
सजा दूँ मैं घर संसार कोना कोना
नकाब उतारना लोगों का भा गई
भूल उनकी सदा माफ कर गई
रेत सी जिन्दगी भी फिसल गई
नदियाँ के तीर मैं तन्हा रह गई...
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