उगूँ बिन नीर भी जमीं ,,, चाहे जैसी होय
नदी तालाब तीर भी,,, या सूनापन होय
मैं बबूल हूँ चिकित्सक , हूँ औषधि का खान
हरियाली विहिन मरु में,पशु पक्षियों का जान
जख्म गहरे भरे लगा,, लो पत्ती का चूर्ण
करे लेप काले घने,, बने केश परिपूर्ण
नित्य लेप प्रयोग करें ,, गंजेपन ठीक होय
डाल से दातुन करो ,, रोग मुक्त दंत होय
परहित में जी रहा हूँ,,सहकर कितना शूल
उपयोगी अंग अंग, व्यंग,, करके न करो भूल
फल के चूर्ण सेवन से, हड्डी भी जुड जाय
गोंद के घोल से आँत, जख्म ठीक हो जाय
बबूल छाल उबाल लो ,, एग्जीमा हो ठीक
पके फूल तेल सरसों ,, कान दर्द हो ठीक
खड़ा रहूँ मैं मेड़ पर ,,,कब मानूँ मैं हार
भूखे पशुओं का सदा,,, बनता हूँ आहार
बाज न आए लोग कहे ,,, बबूल वृक्ष है भूत
कुछ कहे श्री हरि बसते ,,,तभी गुण है अकूत
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