विधा - कविता
ओ परजीवी तुम हो बडें नटखट
कान में मेरे करते रहते खट पट
जहाँ भी जाती आ जाते झटपट
छुपा था मच्छर हरे भरे कानन में
मखमली घास में गुम थी सोच में
जाने कहाँ से आ गया घात करने
देख भी नहीं पाई छुप गया वस्र में
काट के उड़ जाते हरे घासों में फट
जहाँ भी जाती आ जाते तुम झटपट
मुग्ध मन,तृप्त नयन थे हरी भरी कूँज में
ढूँढ़ रहे थे खुद को इस व्यस्त जहांन में
निखट्टू मच्छर ने कर दिया मुझे परेशान
आ गई मैं अपने कुन्बे में उल्टे पाँव लौट
हुआ खिन्न मन चुभाया इतना दाँत जो दुष्ट
जहाँ भी जाती आ जाते हो तुम झटपट
खट्टा मन लेकर फिर चली गयी बिस्तर में
अधखूली पलके खोयी रंग भरे सपनों में
क्षण में नींद उचट गई भन भन के गूँज से
खून पी कर मच्छर तो मस्त गुनगुनाने में
क्रोध की ज्वाला में बोल रही मैं अंटशंट
जहाँ भी जाती आ जाते हो तुम झटपट
बिमार न हो कोई मन लीन आशंका में
लगी डी डी टी का छिड़काव कराने में
चिकनगुनियां टायफाइड टांग न पसारे
आस पास की सफाई करा रही थी झट
ओ परजीवी हो जाओ आज समूल नष्ट
जहाँ भी जाती आ जाते हो तुम झटपट
ओ परजीवी तुम हो बड़े नटखट
कान में मेरे करते रहते खट पट
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