विधा- -गीत (ताटंक छंद)
सत्य सुनने बोलने का मन , कहाँ रही अब लोगों की
जान बूझ कर सब कोई क्यों, पट्टी बाँधी आँखों की
मौन तमाशा देख रहे सब,,नंगापन बहशियों का वो
गांधारी बने समाज , बच,, न पाए दरिन्दों से वो
सभी आड़ में छल प्रपंच के ,,लूटते मनुजता को हैं
करे जान के सच अनसूनी ,, न्याय कहाँ बहरों से है
रोये हृद,सरेआम स्मिता ,,,लुटती है बच्चीयों की
जान बूझकर सब....
आँखों देखी साथ सत्य का ,,, कोई तो देने आते
दिल न पिघलता अन्याय देख , कट कर राह चले जाते
दूजे के दुख तकलीफों से , वास्ता नहीं रखे कोई
मतलब परस्त जग में न पाक, दामन रखे सभी कोई
बेबसी की खिल्ली उड़ाना ,फितरत होती लोगों की
जान बूझकर सब ....
कराह रहा सत्य घुट घुट कर,, रूप हकीकत के भोंडे
पर्दे के पीछे राज रहे,,,सत्य से मुँह सभी मोड़ें
तन्हा पड़ा सड़क पे सच को,,,जानके कुचल दी जाती
भाता बहुत दिल को चाशनी,,में झूठ परोसी जाती
नमक मिर्च डाल स्वादिष्ट सच ,, आदत है चटखारे की
जान बूझकर सब...
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