विधा- राधिका छंद
दहके ज्वाला पेट की ,,,कदम भटकाए ।
निर्धन के पीर भारी ,,,भूख रूलाए ।
भूखे को कभी नहीं ,,, उप देश सुहाय ।
खाली हो जब पेट तब,,,भजन कहाँ होय ।
रोटी दो जून की भी,,,नहीं इख्तियार ।
मुफलिसी तकदीर लिखा,,,मिला न अधिकार ।
ठोकर खाना नियति कब,,,भाग्य बदलेंगे ।
भरा रहे सबका पेट,,, भीख क्यों मांगे ।
दरिद्रों की बिमारी भूख ,,, कौन दुख समझे ।
किस्मत पर जोर न चले,,,राह न अब सुझे ।
निर्बल को सब लोग ही ,,, रखते दबाके ।
खुशियाँ सबलों के सभी ,,,, ऐश है उनके ।
फेकना अन्न रोज ही,,, शान अमीर का ।
चुटकी भर दाना नहीं,,, घरों में विप्र का ।
मुट्ठी भर अनाज क्षुधा,,, शांत कर देती ।
फेंके अन्नों ही कितने ,,, पेट भर देती ।
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