विधा- कविता
वेदना की बदलियों ने
आज फिर घेर रखा है
खामोशियों का पहरा
बिठा दिया दिल पर ..
जीवन उपहास बन गया
पीर से उर सिसक रहा
मिले जो अपनों के दंश
सह वो नहीं पा रहा ..
अपने पन का ढ़ोग
रचाते हैं सभी लोग
झूठी दया सहानुभूति
दिखाते हर एक इन्सान
झूठे स्वांग में सब फँस जाते
आज दिलों के रिश्ते
स्वार्थ में लिपटे होते
अब दिल का लगाना
खेल ही तो हो गया
किसी को कुछ कहना
भाता नहीं किसी से बाँटना
खामोशी की चादर
ओढ़ कर सबसे छुपाना
एक मात्र है हथियार
किसी के दर्द का मखौल
सभी ही उड़ाया करते हैं
फिर किसी से कहकर
हँसी का पात्र बनना
किसको मंजूर होगा
जब अपने ही खंजर
भोंक डाले सिने पर
फिर धीर कौन बंधाए
है बहुत बेदर्द जमाना
नैना फिर क्यों न नीर बहाए ...?
No comments:
Post a Comment