Monday 16 October 2017

कद्रदान

कुछ एहसास
बिन शब्दों के
दिल में ही कैद
रह जाता ...
उसे समझने की
तुम्हें वक्त नहीं
तुम शायद जान के
भी रहते हो अंजान
या फिर तुम बहुत
आगे निकल गए !
मैं वहीं खड़ी हूँ ..
जहाँ से चली थी ..
आज भी मुझे याद है
कैसे मेरे एक उफ् पे
तुम्हारी सिसकी निकल
जाती थी ..
मेरे दो बूँद आँसू से
तुम पिघल जाते थे
और कैसे मेरे
मनुहार में
पलकें बिछाया करते थे
पर अब तुम्हें
फुरसत ही कहाँ ?
काश वक्त ठहर जाए
एक बार पिछे मुड़ जाए
 आँखों के भाव 
 जैसे पढ़ लेते थे
बिन कहे शब्दों
को गढ़ लेते थे
तुम फिर से यूँ ही
मेरे कद्रदान बन जाओ
यही हसरतें हूँ दिल में लिए ..

 

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