Friday 22 December 2017

प्रीत की रीत

क्यूँ सूरजमुखी रोज ही खिल जाते ..
किरणों से जब भी सूरज निकलते ..
सागर बाँहें फैलाए बार बार
अवनि को छूने को मचलते
क्यों चातक स्वाति बूँद को तरसती ..
 
रब की ये अद्भुत पहेली समझ न पाती

नेह गंध में लिपटा भ्रमर
कुमुदिनी के खिलने पर
इर्द गिर्द मंडराया करता ..
रजनीगंधा खुशबू फैलाती
रात सुहानी जब भी आती ...
प्रियतम परवाना के आस में
तिल तिल कर शम्मा है जलती 

मन ही मन हर दिन ये सोचा करती ...

दिल को फिर समझ में आया 
प्रीत का प्याला जिसने पिया
दिल आसक्ति में डूब ही जाता
जिस संग जिसकी प्रीत है होती
उसके परिधि में घुमती रहती

जीवन की डोर उसके ही संग बंध जाती ..

सच्ची प्रीत अनोखी होती
शर्तों में वो  कभी न बंधती
दूरियों से प्रीत कम न होती
मन उसी संग बंध जाता ..
उसके खुशी में ही खुश रहता
अपना सब कुछ सौंप के
मन ही मन आनंदित होती

प्रीत की रीत हमें  यही सिखलाती ..

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