परंम्परा कौन संभाले
बेहद कठिन सवाल
आर्थिक विकास की
जरूरतों से विवश
कट रहे सब जड़ो से ..
अपने संस्कृति के
स्मृति विस्मृत कर
कट रहे हैं लोग गाँव
की मिट्टी से ..
आधुनिकता के अंधी
दौड़ में छोड़ रहे सब
अपने अपने पुरखों के
धरोहर को ..
परंम्परा न हो जाए विलुप्त
पुरानी पीढ़ी आशंकित ,
सूने दलान, उदास आंगन
देख मन है उसका द्रवित ..
सभ्यता और संस्कृति
विकास की आबोहवा
में न हो जाए धूमिल ..
इतनी ही हो हमारी कोशिशें
चाहे जितने भी करें हम उन्नति ..
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